ऑटिज़्म सिर्फ़ बच्चों को ही नहीं, बड़ों में भी हो सकता है: डिसऑर्डर के बारे में सब कुछ जानें
“मैं आख़िरकार यह समझ पायी थी कि मैं जैसी भी हूं, वैसी क्यों हूं. आप कल्पना नहीं कर सकते, इससे कितनी राहत महसूस हुई.” सुधांशु ग्रोवर ने यह बीबीसी को बताया.
सुधांशु ग्रोवर ने कहा, “मेरे दो बेटे ऑटिस्टिक थे. मैं ऑटिस्टिक बच्चों के साथ काम करती हूं लेकिन मुझे कभी संदेह नहीं हुआ कि मैं खुद भी ऑटिस्टिक हो सकती हूं.” नई दिल्ली की सुधांशु को 40वें साल के क़रीब जाकर ऑटिस्टिक होने का पता चला.
व्यस्क होने के बाद ऑटिज़्म की चपेट में आने वाली एलिस रोवे भी बताती हैं, “यह एक तरह से मेरे पूरे जीवन का स्पष्टीकरण मिलने जैसा था.”
ब्रिटेन में रहने वाली एलिस रोवे बताती हैं, “अपने पूरे जीवन के दौरान मैं काफ़ी चिंतित महसूस करती थी, आसपास के लोगों से काफ़ी अलग महसूस करती थी. मुझे दूसरों की तुलना में अपना जीवन सहज नहीं लगता था.”
”ऐसे में मैं क्या महसूस कर रही थी, उसे एक नाम मिल जाने से काफ़ी मदद मिली क्योंकि बहुत सारे लोग इसी समस्या का सामना कर रहे हैं.”
वर्ल्ड ऑटिज़्म अवेयरनेस डे के मौके पर बीबीसी ने दुनिया भर के कुछ लोगों से ऑटिज़्म को लेकर बात की और उनसे यह जानने की कोशिश की कि इलाज मिलने से क्या अंतर आता है.
वयस्क होने पर ऑटिज़्म से प्रभावित होना
ऑटिज़्म को लेकर दुनिया भर के आंकड़ों का मिलना मुश्किल है क्योंकि इस डिसऑर्डर की पहचान और इसके इलाज के लिए कोई एक समान तरीका नहीं है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दुनिया में प्रत्येक 160 बच्चों में एक, ऑटिज़्म से प्रभावित होता है, लेकिन व्यस्कों में ऑटिज़्म को बताने वाला कोई विश्वसनीय आंकड़ा मौजूद नहीं है.
अमेरिका में इसके आंकड़ों को सेंटर्स फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेंशन (सीडीसी) व्यवस्थित रूप से एकत्रित करता है, इसके अनुमान के मुताबिक अमेरिका की 2.21% व्यस्क आबादी ऑटिज़्म से प्रभावित है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक ऑटिज़्म यानी ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (एएसडी) विकास संबंधी ऐसी बीमारी है जिसका असर संवाद और व्यवहार पर पड़ता है और यह किसी भी उम्र में ज़ाहिर हो सकता है.
ऑटिज़्म एक तरह से स्पेक्ट्रम है यानी, इससे प्रभावित प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग तरह की तीव्रता के ऑटिस्टिक लक्षणों को महसूस करते हैं.
आमतौर पर इसकी पहचान बचपन में हो जाती है क्योंकि ऑटिज़्म के लक्षण पहले दो साल के दौरान उभर आते हैं लेकिन कई लोगों में इसके लक्षण व्यस्क होने के बाद आते हैं और कई तो इसका कोई इलाज भी नहीं करा पाते हैं.
वैसे ऑटिज़्म की पहचान देरी से महलाओं में ज़्यादा देखी गई है. इसकी एक वजह तो यह है कि महिलाएं अपने आस-पास की घटनाओं की बेहतर ढंग से नकल करती हैं और उससे कुछ अलग व्यवहार को आसानी से छिपा लेती हैं.
यहां यह ध्यान देने की ज़रूरत है कि ऑटिज़्म कोई बीमारी नहीं है. ब्रिटिश नेशनल हेल्थ सर्विस की वेबसाइट के मुताबिक, ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर से प्रभावित लोगों का दिमाग़ अलग तरह से काम करता है.
ऑटिज़्म का कोई इलाज भी नहीं है, अगर आप ऑटिस्टिक हैं तो आपको पूरे जीवन ऑटिस्टिक ही रहना होगा लेकिन प्रभावित लोगों को सही सहायता और ज़रूरत के मुताबिक मदद ज़रूर दी जा सकती है.
ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर के सभी मामले क्यों नहीं सामने आते?
सुधांशु ग्रोवर एक गैर सरकारी संस्थान एक्शन फॉर ऑटिज़्म की एजुकेशनल सर्विस विंग की प्रमुख हैं.
उन्होंने बताया, “मेरे बच्चों के ऑटिज़्म का पता 20 साल पहले लगा था, जब वे तीन साल के थे. उनकी वजह से मैंने ऑटिस्टिक बच्चों के साथ काम करना शुरू किया. व्यस्क के तौर पर मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे भी एएसडी हो सकता है.”
बीते दो दशक से सुधांशु ऑटिज़्म प्रभावित बच्चों के साथ काम कर रही हैं और उनके माता-पिता को इसके बारे में समझाने की कोशिशों में जुटी हैं.
इस ख़ास स्थिति के बारे में वह जागरूकता फैलाने के लिए काम कर रही हैं. इन सबके बाद 48 साल की उम्र में उन्होंने सोचना शुरू किया कि वह खुद भी ऑटिज़्म से प्रभावित हो सकती हैं.
उन्होंने बताया, “मैंने यह सोचना शुरू किया कि मेरे लिए संवाद करना कितना मुश्किल है, मैं लोगों को जो समझाना चाहती हूं वह समझाना इतना मुश्किल क्यों है, या वे जो समझ रहे हैं, वह मुझे इतना अलग क्यों दिख रहा है?”
सुधांशु बताती हैं, “मुझे लोगों से घुलने मिलने में भी मुश्किल होती थी, मुझे दोस्त बनाने में मुश्किल होती थी. मैं सोचती थी कि मैं संकोची हूं, इसलिए ऐसा है. जब मैं लोगों से घुल मिल जाती थी तब अच्छे से घुलती मिलती थी. इसलिए हमेशा एक-दो क़रीबी दोस्त तो थे लेकिन किसी बड़े समूह से दोस्ती नहीं हो सकी.”
इसके बाद सुधांशु को लगने लगा कि वह तनाव से संघर्ष कर रही हैं. उन्होंने कहा, “जब स्थिति तनावपूर्ण हो जाती तो मुझे कुछ सूझता ही नहीं था, या फिर मैं बहुत ज़्यादा सोचने लगती थी.”
लेकिन इस स्थिति तक आते आते सुधांशु को ऑटिज़्म के बारे में काफ़ी चीज़ें मालूम हो गई थीं और उन्हें यह पता चल गया था यह केवल बच्चों को होने वाली चीज़ नहीं है और इससे व्यस्क भी प्रभावित हो सकते हैं और हो सकता है जीवन भर उन्हें इसका पता भी नहीं चले.
सुधांशु बताती हैं, “भारत में ऑटिस्टिक लोगों के लिए उपलब्ध सुविधाओं, प्रावधानों और रियायतों को देखते हुए मैं यह जानती हूं कि मेरी उम्र में इसकी जांच सरकारी अस्पतालों में नहीं हो सकती थी, लिहाज़ा मैं अपनी जांच के लिए निजी अस्पताल में गयी.”
“अब तो डेढ़ साल होने वाले हैं. मैं अब तक यह समझने की कोशिश कर रही हूं कि मेरे लिए इसके क्या मायने हैं. मैं अब तक इसे महसूस ही कर रही हूं. मुझे इससे खुद को समझने में मदद मिली. कई मौके पर मैं जिस तरह से प्रतिक्रिया देती हूं, वह क्यों करती हूं, यह समझ में आया.”
आख़िर में, यह उनके लिए फ़ायदेमंद ही है.
सुधांशु बताती हैं, “मैं ऑटिस्टिक बच्चों के साथ काम करती हूं. जब माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सवाल पूछेंगे तो मैं उन्हें अपने ऑटिज़्म के बारे में बता सकती हूं. मैं इसको लेकर बहुत खुले नज़रिया वाली हूं. क्योंकि मुझे लगता है कि बदलाव तभी आएगा जब लोग यह समझेंगे कि आप क्या कर सकते हैं. इससे हर किसी की ज़िंदगी आसान होगी.”
सामाजिक तानों से संघर्ष
सिल्विया मोरा मोचाबो ने बीबीसी से कहा, “अफ्रीकी महादेश में व्यस्कों के लिए इस डिसऑर्डर को स्वीकार करना भी चुनौतीपूर्ण होता है, क्योंकि अभी भी समाज में इसको लेकर लांछन जैसी स्थिति है.”
सिल्विया केन्याई महिला हैं और एक तकनीकी उद्यमी हैं. वह एंडी स्पीक्स 4 स्पेशल नीड्स पर्सन्स अफ्रीका नाम की संस्था की संस्थापिका भी हैं.
सिल्विया अपनी संस्था का इस्तेमाल मिस अफ्रीका इलीट 2020, मिस अफ्रीका यूनाइटेड नेशन 2020 और मिस इलीट फेस ऑफ़ अफ्रीका 2020 जैसे आयोजनों में कर चुकी हैं. इसके ज़रिए वह न्यूरो डेवलपमेंटल विकलांगता और ऑटिज़्म को लेकर समाज में ज़्यादा जागरूकता फैलाना चाहती हैं.
सिल्विया ने बताया, “जानकारी के अभाव में लोग इस विकार की जांच नहीं करा पाते हैं. तीन सालों में मुझे व्यस्कों में ऑटिज़्म के केवल तीन मामले मिले हैं. डॉक्टर बच्चों में भी इसका पता नहीं लगा पाते हैं. शुरुआती दिनों में इसकी पहचान के मामले में हमलोग काफी पीछे हैं.”
सिल्विया के तीन में से दो बच्चे ऑटिस्टिक हैं. सिल्विया को आशंका है कि उनके बच्चे समाज में पूरी तरह से अपना जीवन नहीं जी पाएंगे क्योंकि ऑटिस्टिक क़रार दिए जाने के बाद किसी व्यस्क के लिए भी यह बड़ी सामाजिक चुनौती है.
नातालिया मीडिया में काम करती हैं और व्यस्क होने के बाद उन्हें ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर का पता चला. हालांकि वह अपनी पहचान ज़ाहिर करना नहीं चाहती हैं क्योंकि अतीत में उनका काम इस वजह से प्रभावित हुआ है.
वह बताती हैं, “हम सबकी इच्छाएं और सपने होते हैं. वह अलग होने की वजह से बदल नहीं जाते. हम सब की इच्छाएं और चाहत एक जैसी होती हैं. मैं ऐसे कुछ लोगों को जानती हूं जो ऑटिस्टिक हैं लेकिन वे इसके इलाज के बिना रह रहे हैं. वे जानते हैं कि वे औरों से अलग हैं लेकिन उनके पास एडजस्ट करने के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं.”
सिल्विया के मुताबिक स्थिति तब और ख़राब हो जाती है जब आपको मालूम नहीं होता है कि आपके साथ क्या हो रहा है.
सिल्विया बताती हैं, “जब हमारे डॉक्टर अपने पाठ्यक्रम की पढ़ाई करते हैं तब उनके पाठ्यक्रम में ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर की विस्तार से पढ़ाई नहीं होती है. इसलिए जब वह विशेष पहचान वाले मरीज़ों को देखते हैं चाहे वह बच्चे हों या व्यस्क- वे ऑटिज़्म के बारे में नहीं सोचते हैं. इसके चलते लोग बिना समझे ऑटिज़्म वाली स्थिति के साथ जीते रहते हैं.”
सिल्विया ने बताया, “हमारी संस्कृति में जब किसी में कोई ख़ास व्यवहार दिखाई देता है तो उसे मानसिक रूप से बीमार कहने लगते हैं. इसे काफ़ी नकारात्मकता के साथ देखा जाता है. इसलिए आपको ऐसे ढेरों लोग मिलेंगे जो इस तरह से चिन्हित होने से बचना चाहते हैं. वे ऑटिज़्म का सामना करते हुए संघर्ष करते रहते हैं और उसके दूसरे उपाय तलाशते हैं. लेकिन सवाल यह है कि इसके क्या नुकसान हैं?”
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सिल्विया के मुताबिक ऑटिज़्म की पहचान और उसके इलाज के बिना व्यस्क होना किसी भी शख़्स की मुश्किलों को बढ़ा देता है.
वो बताती हैं, “अगर स्कूली स्तर पर बच्चे को कोई मदद नहीं मिली तो बहुत संभव है कि वे पढ़ाई बीच में ही छोड़ दे. जब तक वे व्यस्क होंगे तब तक सामाजिक स्तर पर उन्हें कई लांछनों का सामना करना होगा, जिसमें उन्हें ज़िद्दी या गूंगा इत्यादि कहा जाने लगा होगा, कोई नहीं सोचता है कि यह सब ऑटिज़्म की वजह से भी संभव है.”
सिल्विया के मुताबिक अफ्रीका में लोग ऑटिज़्म की पहचान को बुरी ख़बर के तौर पर देखते हैं. सिल्विया ने बताया, “हालांकि ऐसा होना दुनिया का ख़त्म होना नहीं है. आप इसके बाद भी दुनिया के सबसे बेहतर शख़्स के साथ काम कर सकते हैं.”
सिल्विया के मुताबिक वह अपने काम और पैरेंट्स के तौर पर अपने अनुभव से यह जानती हैं कि ऑटिज़्म पीड़ित शख़्स और समाज के लिए इस डिसऑर्डर की स्वीकार्यता सबसे अहम है.
उन्होंने बताया, “आपकी ज़रूरत क्या है? संवेदी मुद्दों को लेकर मदद चाहिए? स्पीच थेरेपी की मदद चाहिए? आख़िर में दूसरे लोगों के साथ समावेशी ज़िंदगी जीने के लिए आपको सही इलाज की ज़रूरत होगी. जब तक आप इसकी ज़रूरत को नहीं समझेंगे या इसका अनुभव नहीं करेंगे तब तक आप सही थेरेपी और इलाज को लेकर प्रभावित शख़्स की मदद नहीं कर सकते.”
वयस्क के तौर पर भी इलाज क्यों?
सिल्विया बताती हैं, “मैं हर उस व्यस्क का उत्साह बढ़ाती हूं जो स्पेक्ट्रम से प्रभावित हो सकते हैं कि आप इसका इलाज कराएं, क्योंकि इससे आपको काफ़ी मदद मिलती है. जब मालूम हो कि आप चुनौती पर काम कर रहे हैं तो कहीं ज़्यादा तैयारी से आप उसका सामना करते हैं.”
सुधांशु ग्रोवर इस पहलू से सहमत हैं. उन्होंने राहत के स्वर में बताया, “पीछे मुड़कर देखती हूं तो पता चलता है कि मैं ऐसे लोगों को जानती हूं, जो मुझसे बेहतर नहीं थे लेकिन उन्हें मुझसे बेहतर ग्रेड मिले और जीवन में उन्हें बेहतर अवसर मिले क्योंकि उन्हें मेरी तरह प्रतिदिन इस चुनौती का सामना नहीं करना पड़ रहा था.”
”मेरे दिमाग़ में काफ़ी कुछ चलता रहता था, लेकिन वह कभी बाहर नहीं आ सका. ऐसी भी चीज़ें थीं जो मैं वास्तव में नहीं कर सकती थी- इसलिए इसके इलाज के बाद मैं काफ़ी बेहतर महसूस कर रही हूं.”
कुछ ऐसा ही पुरस्कार विजेता लेखिका और उद्यमी एलिस रोवे का मानना है, 23 साल की उम्र में उन्होंने ऑटिज़्म का इलाज कराया था.
वो कहती हैं, “मैं बहुत अलग थलग महसूस करती थी, काफ़ी दुखी महसूस करती थी. हालांकि मैं जानती थी कि ऐसा कई और लोग महसूस कर रहे हैं. जब मैं किशोरावस्था में थी तब काफ़ी अकेलापन महसूस करती थी.”
इसी वजह से एलिस ने सामाजिक उद्यम के तौर पर द कर्ली हेयर प्रोजेक्ट शुरू किया जो ऑटिज़्म से प्रभावित लोगों की मदद करता है.
एलिस बताती हैं, “कई लोग तो इसका इलाज बहुत सालों तक इसलिए नहीं कराते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि हर कोई ऐसी समस्या का सामना कर रहा है, इसलिए वे अपनी ओर से कहीं ज़्यादा कोशिश करते हैं.”
एलिस बताती हैं, “यह भी संभव है कि ऑटिज़्म से प्रभावित लोगों में इतनी जागरूकता नहीं होती है कि वे महसूस कर सकें कि यह कुछ अलग चीज़ है. कई लोग इसे जानते बूझते हुए भी स्वीकार नहीं करते हैं, इसलिए इलाज नहीं कराते हैं.”
एलिस को इलाज से मदद मिली. इसके बारे में वो बताती हैं, “मेरे दोस्त मुझे अब कहीं बेहतर ढंग से समझते हैं. हमारे संबंध कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं. मुझे अब यह भी लगता है कि आसपास के लोगों के साथ मुझे अब कोई बात छिपाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह बेहद अहम है.”
‘अदृश्य स्थिति’ को समझना
एलिस ने बताया, “मैं जिन समस्याओं का सामना कर रही थी, उसके बारे में लोगों को समझाना काफ़ी मुश्किल था क्योंकि वे उन्हें दिखाई नहीं देतीं. व्यस्क होने के बाद भी मेरे इलाज से कई पुराने दोस्त और परिचित अचरज में आ गए थे.”
इससे सहमति जताते हुए सुधांशु ने बताया, “बिना इसकी पहचान के हर दिन मुश्किल है. इलाज होने के बाद भी लोग अदृश्य स्थितियों को नहीं समझते हैं.”
उनके मुताबिक, “कई चीज़ों से संघर्ष करना होता है जिसमें शोर, गंध, भीड़ भाड़ वाली जगह इत्यादि शामिल हैं. अगर आप ऑटिस्टिक हैं तो आपका जीवन काफ़ी मुश्किल हो सकता है क्योंकि रोज़मर्रा की सामान्य चीज़ें आपको मुश्किल में डाल सकती हैं.”
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एलिस बताती हैं, “कुछ समस्याएं तो इतनी सामान्य होती हैं कि लोग उसे समस्या मानने से इनकार कर देते हैं. उदाहरण के लिए आप किसी को पसंद करते हैं लेकिन उससे मिलने में सहज नहीं हैं, ये बात आप कैसे समझाएंगे?”
”या फिर पहले से तय योजना में छोटी तब्दीली भी आपका पूरा दिन कैसे ख़राब कर देता है, या इसके चलते आप पूरी रात सो नहीं पाए? या फिर आप ट्रेन के टिकट बैरियर पर अपना टिकट नहीं लगा पाए, आपको टिकट कहां रखना था, ये आप नहीं समझ पाए, कौन से बैरियर पर लगाना था, इसका पता नहीं चला.”
कुछ मामलों में कोविड लॉकडाउन की पाबंदियों ने ऑटिज़्म से गैर प्रभावित लोगों को उसी तरह के तनाव में रहने पर मजबूर किया जिसके साथ ऑटिज़्म प्रभावित लोग रहते हैं.
एलिस बताती हैं, “अब हर किसी को मालूम है कि हमारी तरह रहना क्या होता है. मुझे हमेशा साफ़ सफ़ाई पसंद थी और मुझे लोगों से दो मीटर की दूरी हमेशा पसंद थी.”
खुद की मदद के लिए खुद को जानना ज़रूरी
नातालिया बताती हैं, “ऑटिज़्म की पहचान भर होने से सभी समस्याओं का हल नहीं मिलता. हालांकि यह कुछ मामलों में मददगार होता है, लेकिन तभी जब आपको कुछ मदद मिले या फिर आपको अच्छे ढंग से समझा जाए. इससे आप जैसे हैं, उस रूप में खुद को स्वीकार करने में मदद मिलेगी. आप अजीब महसूस नहीं करेंगे. नज़दीक से देखेंगे तो लगेगा कि सब कुछ ना कुछ से प्रभावित है.”
सुधांशु बताती हैं, “ऑटिज़्म से प्रभावित होने के बारे में जानने का एक फ़ायदा तो यह हुआ कि अब मैं उसके लिए कहीं ज़्यादा तैयार हूं. समस्या का बेहतर ढंग से सामना कर पाती हूं और असहज स्थितियों से बचने की कोशिश करती हूं.”
एलिस इससे सहमति जताते हुए कहती हैं, “मेरे लिए अब जीवन कहीं ज़्यादा आसान है क्योंकि मैं व्यस्क हूं और मैं खुद को कहीं ज़्यादा समझती हूं. ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम की जांच के बाद खुद को लेकर मेरी समझ कहीं तेज़ी से बढ़ी. अब दूसरे लोग ऑटिज़्म के बारे में जानते हैं, इससे भी मदद मिली.”
सुधांशु सलाह देती हैं कि ऑटिज़्म को लेकर प्रभावित और उसके आस पड़ोस के लोगों के पास बेहतर जानकारी होनी चाहिए.
वो बताती हैं, “ऑटिज़्म के साथ तो जीवन भर रहना है, उसके बारे में जितनी जानकारी उतने ही बेहतर ढंग से आप जी सकते हैं.”